
Tabdiliyat

देखो कहां ले आए तुम
अंधेरों, मुश्किलों, दुखों से दूर
उलझनों से सुलझन की ओर ले आए तुम
बे – सुकून से सुकून कि तरफ़
गुमनामी से वजूद की ओर ले आए तुम
मरे हुए से ज़िंदा होने का
एहसास करा दिया तुमने
अधूरे से पूरा कर दिया तुमने
सवालों को जवाब में बदल दिया
समर्पण को आत्मसमर्पण कर दिया तुमने
एक कैदी को चिड़िया बना कर
आज़ाद करा दिया तुमने
हां उड़ना सिखा दिया तुमने ।
बच्चा सोचता है, बड़ा हो जाऊँ
अपने पैरों पर, खड़ा हो जाऊँ
अपने कदमों से, दुनिया नापूंगा
तवारीख़ में, अपना नाम छापूंगा
बचपन का एक ख़्वाब लिए ज़िन्दा
मैं नासमझ, नादान सा परिंदा ।
नित नए ख़्वाब बुनता है
आधी-अधूरी राह चुनता है
मान बैठता है, सब सच
जिससे, जैसी, बात सुनता है
बचपन का एक ख़्वाब लिए ज़िन्दा
मैं नासमझ, नादान सा परिंदा ।
और आड़े आ ही जाती है हक़ीक़त
जैसे, अनजानी सी कोई मुसीबत
लड़खड़ाता है, मगर खड़ा हो जाता है
एक रोज़, हर बच्चा बड़ा हो जाता है
बचपन का एक ख़्वाब लिए ज़िन्दा
मैं नासमझ, नादान सा परिंदा ।
कुछ तारीख़ें मरती नहीं
बस पड़ी रहती हैं
कैलेंडर के किसी कोने में
दीवार से टेक लगाए
बिल्कुल अधमरी स्थिति में…
ना कोई हलचल,
ना ही संचार,
बस साँसें मात्र ही चलती हैं!
टूट टूट कर आती
इन साँसों के सहारे ही
हर साल ये तारीखें
खड़ी हो जाती हैं…
काँपते पैरों से,
लड़खड़ाते हुए
चली आती हैं सामने
तय समय पर
ले कर अपने साथ
कुछ दफ़न यादें..
जिन्हें बाहर देख कब्र के
कोसा जाता है इन तारीख़ों को.
ये तारीखें फिर लेकर बद्दुआएँ
लौट जाती है
कैलेंडर के उसी कोने में..
जहाँ बेबस आँखों से
देखती रहती हैं एकटक
दरवाज़े की तरफ़
एक आस लिए…
कि, किसी रोज़ उन्हें फिर से
सराहा जाएगा
पहले की तरह…
और यही उम्मीद,
यही कमबख़्त उम्मीद…
इन तारीख़ों को मरने तक नहीं देती!
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